Saturday, April 7, 2012

कल और आज


एक साधारण सा कल , आज क्यां तुमको भी जन्नत लगता हैं ,क्यां तुमको भी अंजानी राह पे चलता बंजारा , जाना-पहचाना सा लगता हैं ,तुम भी रोते से हो क्यां, किसी बच्छे की स्कूल बस छूटते देख के,क्यां तुमको भी उस मासूम की चमकती किस्मत से ईरश्या का अनुभव सा होता हैं,




समोसे की इक छोटी सी दुकान,
बैठा करते जहां कभी दो , कभी चार ,
देता था साथ समोसे के , धनिया-मिर्ची की लाजवाब चटनी ,
कितना कोसा करते थें चटनी को तुम,
फिरकी लेते थे दुकान वाले से  -
"क्या भैय्या मिर्ची उगा रहें हो क्या आज कल"
वो भी मुस्कुरा देता था बस,
समझता था , मसखरे सारे हैं आते बस,
दोस्त था तुम्हारा , केवल सौदागर नहीं,
कई बार उसी ने बचाई जान थी,
जब पापा का स्कूटर तुमने भिड़ाया था,
 और खूब बनवाई का खर्चा आया था,
जाने कितनी शामें गुजारीं ऐसे ,


अब याद तुमको भी नहीं क्यां कुछ ऐसी ही यादें,
वो धनिये की चटनी,
समोसे की प्लेट,
क्लच वाॅयर का रेट,
वो दोस्त.
उससे मिलते तो होगे ना तुम,
नाम तो याद होगा ना उस दोस्त का,
या मेरी ही तरह  .... तुम भी



रात दिन

रात दिन जल्दी होने लगे आज कल,
दिन के भी मक़सद होने लगे शायद आज कल,
लोगो का नजरियां भी सोचने लगे है आज कल,
इसे पागलों की आदत कहा करते थे कल तक।